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बिशु मेला: हिमाचल की लोक गाथाओं, नृत्यों और मेलों में झलकाता है सदियों पुराना इतिहास

हिमाचल के अलग-अलग हिस्सों में बीशु मेले लगते हैं। पहाड़ वासियों ने लुप्त हो रही इस संस्कृति एवं परंपरा को जैसे-तेसे जीवित रखा है। शिमला जिले के विभिन्न अलग-अलग हिस्सों में भी बिशु मेले लगते हैं। मगर श्री महाकालेश्वर देवता साहिब पन्दोई के बिशु पर्व का विशेष महत्व है। यह मेला हर वर्ष 13 अथवा14 अप्रैल से प्रारंभ होता है। मेले की शुरुआत देबता साहिब के आगमन से होती है। उन्हें पालकी में ढोल नगाड़ों के साथ मेले के स्थान तक लाया जाता है। जहां पर स्थानीय लोगों द्वारा महाराज जी की पूजा अर्चना की जाती है।तदोपरान्त मेले का आगाज होता है। यह मेला स्थानीय लोगों द्वारा गांव-गांव में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। लोगों द्वारा स्थानीय नृत्य व कई अन्य कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं। प्रथम दिन पालीधार डमोग, दूसरे दिन धरोगड़ा (लाहौल) जो कि सभी का सामूहिक बीशु माना जाता है। तीसरे दिन नतराड, चौथे दिन सन्दोआ, पाचवे दिन ऐवग, छठे दिन गढेरी, सातवे दिन ओगली, आठवे दिन मूल स्थान पन्दोआ मे बीशु मेले का आयोजन किया जाता है। तदोपरांत देवता महाराज सागरी क्षेत्र में प्रवेश करते हैं।परोल,सीणवी, हथिया नामक स्थान पर बीशु मेले के उपरांत अंत में कोठी घाट, घाट नामक स्थान पर बीशु मेले का समापन हो जाता है। मेले में हजारों की संख्या में लोग अपने इष्ट देव के दर्शन के लिए दूर-दूर से पहुंचते हैं। तथा कुलईष्ट के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त कर देवता महाराज का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। बीशु मेले के दौरान संगीतमय वातावरण में व्यक्तियों वह महिलाओं में खेल भी आ जाती है। जो कि देवता की शरण में गिरकर स्वत‌ उपचारित हो जाते हैं।बाद्ययन्त्रो की झंकार में बीशु मेला नृत्यमय हो जाता है। बता दें कि यह मेला सौर वर्ष के शुभारंभ का प्रतीक भी है।बीशु मेले के अवसर पर सभी बंधु बांधव, इष्ट मित्र व परिवार के लोग एकत्र होकर आपसी भाईचारे को और अधिक प्रगाढ़ता देते हैं। आदिकाल से चली आ रही इस देव परंपरा ने समाज को एक सूत्र में पिरोए रखा है। समाज कल्याण व आपसी भाईचारे को बनाए रखने के लिए यह परंपरा निरंतर जारी रहनी चाहिए।

ओमप्रकाश शर्मा इंडियन टीवी न्यूज न्यूज़ शिमला

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