बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ जैसे नारे कहां तक सार्थक..?
बालिकाओं को बचाने और शिक्षित करने के लिए सरकार की पहल बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ बहुत अच्छी है लेकिन जब बच्चियों की शादी हो जाती हैं तो एक समाज का हिस्सा संकीर्ण मानसिकता क्यों दिखाता हैं!हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी कई मामलों में संकीर्ण मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाया है!खासकर महिलाओं के मामले में पुरुष सत्ता का हिंसक बर्ताव आधुनिक माने जाने वाले तबकों में भी देखा जाता है!आज भी बहुत सारे लोग अपनी बहुओं को परदे में ही रखना चाहते हैं उन्हें नौकरी आदि करने की इजाजत नहीं होती!आज भी ग्रामीण इलाकों और कुछ सामंती मिजाज के परिवारों में बहुओं को घर की चारदीवारी में परदे के पीछे ही कैद रखने का प्रयास किया जाता है!उनका घर से बाहर निकल कर कहीं नौकरी करने जाना अच्छा नहीं माना जाता! कई परिवारों में तो विवाह से पहले ही करार कर लिया जाता है कि उनकी बहू घर में ही रहेगी नौकरी नहीं करेगी! इस तरह बहुत सारी लड़कियां पढ़-लिख कर भी अपनी इच्छा के मुताबिक काम का चुनाव नहीं कर पातीं!विचित्र है कि इसमें उनके पति भी अपने माता-पिता का साथ देते हैं!फिर यह सवाल भयावह रूप से हमारे समाज में सिर उठाता है कि बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ जैसे नारे कहां तक सार्थक हो पाएंगे! लड़कियों को लड़कों के बराबर अधिकार देने की वकालत की जाती है! बहुत सारे सुलझे हुए परिवार अपनी बेटियों को पढ़ाने-लिखाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते! उन्हें अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाते हैं! मगर विवाह के बाद अगर वेकब ऐसे दकियानूसी परिवारों में कैद होकर घुटने लगती हैं तो उनकी शिक्षा और सोच-समझ।काबिलियत का कोई मोल नहीं रह जाता!इस तरह दिल्ली में हुई एक ताजा घटना में जिस ससुर ने अपनी बहू को ईंट मार कर गंभीर रूप से घायल कर दिया उसे उसकी पढ़ाई-लिखाई और सामाजिक परिवेश की दृष्टि से पिछड़ा तो कह सकते हैं! मगर यह दकियानूसी सोच केवल तथाकथित कम पढ़े-लिखे और पिछड़े समाजों में नहीं है!कई मामलों में अत्यंत निचला माने जाने वाले तबके की महिलाएं कामकाज के मामले में कुछ अधिक स्वतंत्र हैं! व घर से निकल कर मजदूरी करने दुकान चलाने या घरों-दफ्तरों आदि में काम करने जाती हैं!मगर विचित्र है कि दिल्ली जैसे अपेक्षाकृत प्रगतिशील माने जाने वाले शहर में भी ऐसी संकीर्ण सोच के लोग आज भी मौजूद हैं जो अपनी बहू-बेटियों को घर की चारदीवारी में कैद करके उन्हें घुटने पर मजबूर करते हैं!यह घटना एक बार फिर से इस पहलू पर सोचने को विवश करती है कि आखिर बहू-बेटियों को लेकर हमारे समाज के बड़े हिस्से का मानस ऐसा संकुचित क्यों बना हुआ है।
रिपोर्ट रमेश सैनी सहारनपुर इंडियन टीवी न्यूज़