जैसे जैसे समाज का नैतिक एवं सामाजिक स्तर गिर रहा हैं उसी प्रकार हर तबके में गिरावट देखने को मिल रही हैं पैसा पुलिस का हो या पत्रकारिता का पुलिस की हम अच्छे काम पर प्रससन्सा भी करते हैं और समय पढ़ने पर आलोचना भी पत्रकारिता का यही उद्देश्य भी हैं लेकिन हमें भी यह मंथन करना होंगा की लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ कहे जाने वाला पत्रकारिता का मिशन कहि कुछ चन्द तथाकथित पत्रकारों की वजह से भटक तो नही रहा हैं?कुछ ऐसे मामले प्रकाश में आते हैं जिनसे पत्रकारिता पर कहि ना कहि आंच आती दिखाई देती हैं लेकिन दो दशकों में कुछ तथाकथित पत्रकारों की संख्या एका एक बढ़ गई हैं संख्या बढ़ना गलत बात नही हैं लेकिन ऐसे लोगो से पत्रकारिता को खतरा महसूस होता हैं जो न तो पेशे वर पत्रकार हैं नही पत्रकारिता से कोई सरोकार रखते हैं बल्कि ऐसे कामो को स्वंम करने लग जाते हैं जो पुलिस को करना चाहिए,मुझे यह कहने में कोई संकोच नही हैं कि सट्टे जुए या अन्य अवैध धंधों से स्वंम निपटने की बजाय लिखकर या चैनल पर दिखाकर उसका प्रसारण करें,यही जोखिम पत्रकारिता भी कहलाती हैं,पीत पत्रकारिता से बचकर साफ सुथरी पत्रकारिता ही समाज का आईना होती हैं।पुलिस अपना काम बाखूभी करती हैं जरूरत पढ़े तो पुलिस प्रेस सहयोगी बनकर एक दूसरे को सहयोग भी करते हैं बेहतर हो कि किसी भी गलत कारनामो की कवरेज करते समय सतर्कता बरतनी चहिये और एक हद से ज्यादा सिमा लांघना भी उचित नही हैं,पत्रकारिता धेरीये सहनशीलता और निष्पक्षता की प्रतीक होती हैं लेकिन देखने मे आ रहा हैं कि कुछ तथाकथित पत्रकारिता का लबादा ओढ़कर अति उत्साह में आकर इस तरह काम कर जाते हैं जो पत्रकारिता के नियमो के भी विरूद्ध होता हैं।अब बेहतर हो कि पुलिस का काम पुलिस करें,स्वंम पुलिस बनकर पत्रकारिता ना करें तो ज्यादा बेहतर होंगा।
रमेश सैनी सहारनपुर