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गहलौत-पायलट का ‘सम

Gehlot-Pilot's 'sum'

राजस्थान में कांग्रेस पार्टी के भीतर पूर्व अध्यक्ष व पूर्व उपमुख्यमन्त्री सचिन पायलट जिस तरह के बगावती तेवर दिखा रहे थे, उन पर अब विराम लग चुका है और श्री पायलट ने मुख्यमन्त्री श्री अशोक गहलौत के साथ अपने सभी मतभेदों पर खाक डाल कर पार्टी व राज्य हित में आगे बढ़ना शुरू कर दिया है। श्री गहलौत के बारे में मेरी शुरू से ही राय रही है कि वह स्व. मोहन लाल सुखाडिघ्या के बाद राजस्थान के ऐसे नेता हैं जो पूर्णतः गांधीवादी नीतियों के अनुसार अपने आलोचकों को अपने मत से सहमत कराना जानते हैं। वह वास्तव में राज्य की जनता की नब्ज को पहचानते हैं और उनकी सरकार की सभी नीतियां इसी नब्ज का ‘तापमान’ देख कर बनती हैं। यही वजह है कि श्री पायलट अब कांग्रेस रागिनी को ‘ऊंचे सुर’ में छोड़ कर ‘सम’ में गा रहे हैं। बेशक कई बार ऐसा होता है कि चुनावी विमर्शों के लोकाभियान में जमीन पर जन हित में किये गये ठोस कार्य विरोधियों द्वारा बहाई गई हवा में बह जाते हैं मगर कार्यों के निशान जमीन पर बाकी रह जाते हैं। श्री गहलौत के मामले में 2013 के विधानसभा चुनावों के दौरान यही हुआ था। मगर 2018 के चुनावों में राज्य विधानसभा की 200 में से मात्र 98 सीटें अपनी पार्टी सदारत में जीतने वाले सचिन पायलट को यह गलतफहमी हो गई थी कि यह सब उन्हीं का कमाल था। वह अभी युवा हैं और उनके पास पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए अपने यशस्वी पिता स्व. राजेश पायलट की जनसेवा की महान विरासत भी है। अतः ‘धैर्य’ को सचिन पायलट को राजनीति में ‘आभूषण’ की तरह धारण करके श्री गहलौत से सियासत के गुर सीखने चाहिए थे लेकिन कांग्रेस पार्टी देश की ऐेसी पार्टी है जिसमें आन्तरिक लोकतन्त्र ‘खिलखिला’ कर नेताओं की आपसी रस्साकशी का सार्वजनिक प्रदर्शन करने से भी पीछे नहीं रहता। इसी वजह से श्री पायलट को राजस्थान में अपनी ही पार्टी की सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन करने में किसी प्रकार हिचक नहीं हुई। वह अपने ही मुख्यमन्त्री के विरुद्ध महीने भर राजस्थान की सड़कों पर घूमते रहे और मांग करते रहे कि पिछली भाजपा नीत वसुन्धरा राजे सरकार के दौरान जो भ्रष्टाचार के आरोप कांग्रेस ने पिछले चुनावों के दौरान लगाये थे उनकी जांच की जानी चाहिए। मगर यह कहते हुए वह भूल गये थे कि 2020 में उन्होंने स्वयं उपमुख्यमन्त्री रहते अपने बीस समर्थक विधायकों के साथ बगावत का जो ‘गुल’ खिलाया था उसे ‘गुलिस्तां’ होने से रोकने में बकौल श्री गहलौत व श्रीमती वसुन्धरा ने ही प्रमुख भूमिका निभाई थी। इससे यही साबित हुआ कि सचिन अपनी पार्टी की सरकार की विश्वसनीयता को ही निशाने पर रखने से नहीं चूक रहे हैं जिसका फायदा श्री गहलौत को मिलना ही था।कांग्रेस में नेतृत्व संघर्ष कोई नई बात नहीं है और लोकतन्त्र में यह पूरी तरह जायज भी कहा जा सकता है लेकिन तब तक ही जब तक कि किसी मुख्यमन्त्री का उस राज्य के विधायक अपने बहुमत से चुनाव न कर लें। एक बार नेता का चुनाव होने के बाद उसमें परिवर्तन का अधिकार केवल पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पास ही होता है। राष्ट्रीय अध्यक्ष को यदि यह एहसास हो जाता है कि उसकी पार्टी द्वारा शासित किसी राज्य का मुख्यमन्त्री आम जनता की नजरों से उतर चुका है तो वह उसका लोकप्रिय विकल्प चुनने के लिए स्वतन्त्र होते हैं। राजस्थान के मामले में तो श्री गहलौत की लोकप्रियता को चुनौती देने का साहस उनके विरोधी दल के नेताओं तक में नजर नहीं आ रहा है क्योंकि उन्होंने अपने शासन को ज्यादा से ज्यादा लोकोन्मुखी और लोक कल्याणकारी बनाने की नीति अपनाई हुई है। पूरे देश में राजस्थान एक मात्र ऐसा राज्य है जिसमें गरीब जनता को गैस सिलेंडर सिर्फ 500 रुपए का मिल रहा है जबकि बाजार में इसकी कीमत 1100 रुपए से भी ऊपर है। इसी प्रकार राज्य की स्वास्थ्य कल्याण योजना से लेकर महिला कल्याण योजना का कोई तोड़ नहीं है। गहलौत राजनैतिक मर्यादा रखते हुए राजनीति करने के कायल शुरू से ही रहे हैं। उनमें राजनैतिक चातुर्य लोकतान्त्रिक नैतिकता के दायरे में इस कदर भरा हुआ है कि विरोधी भी इसका लोहा मानने से नहीं कतराते। बेहतर होता कि श्री पायलट इस सबसे सबक लेते हुए राजस्थान की भविष्य की राजनीति में अपनी जगह सुनिश्चित करने की मुहीम में लगते मगर उन्होंने तो गहलौत के खिलाफ ही अभियान जैसा शुरू कर दिया था। जिसकी वजह से कांग्रेस आलाकमान को दखल देना पड़ा और दोनों नेताओं में सुलह करानी पड़ी। श्री पायलट को अपनी पार्टी कांग्रेस के इतिहास के बारे में भी पूरी तरह परिचित होना चाहिए। आजादी के तुरन्त बाद एक समय ऐसा भी बना कि प्रधानमन्त्री पद पर आसीन पं. जवाहर लाल नेहरू समाजवादी खेमे के प्रखर नेता स्व. डा. राम मनोहर लोहिया को कांग्रेस अध्यक्ष बनाना चाहते थे। डा. लोहिया इस प्रस्ताव को इस शर्त के साथ स्वीकार करना चाहते थे कि पार्टी अध्यक्ष को अपनी ही पार्टी की सरकार की नीतियों के विरुद्ध प्रदर्शन या विरोध प्रकट करने का अधिकार मिलना चाहिए। डा. लोहिया मानते थे कि पार्टी संगठन और सरकार दो अलग-अलग इकाई होते हैं। लोकतन्त्र में दोनों का अलग अस्तित्व होता है। अतः पार्टी को जनता के बीच रहते हुए अपना स्वतन्त्र दायित्व निभाना चाहिए परन्तु पं. नेहरू इस मत से आंशिक रूप से सहमत थे अतः उन्होंने डा. लोहिया का यह प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया किन्तु कांग्रेस पार्टी के मंच के दायरे में ऐसे बेशुमार मौके आये जब पार्टी की सरकार और उसके मन्त्रियों व नीतियों तक की इसके सम्मेलनों में विभिन्न नेताओं ने जमकर आलोचना की। इसमें सबसे ज्यादा प्रसिद्ध 1955 का कांग्रेस अधिवेशन का वह मुद्दा है जिसमें पं. नेहरू की सहकारिता खेती के विचार का जबर्दस्त विरोध स्व. चौधरी चरण सिंह ने किया था। राजनीति केवल सत्ता का नाम नहीं होती अन्ततः यह लोक सेवा का काम होती है। अतः,‘‘कुछ लिख के सो, कुछ पढ़ के सो
तू जिस जगह जागा सबेरे, उस जगह से बढ़ के सो !’’

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