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शिक्षा विश्व रैंकिंग में पिछड़ता भारत

India lags behind in education world ranking

आदित्य नारायण

शिक्षा मंत्रालय हर साल शिक्षा संस्थानों की रैंकिंग जारी करता है। इस बार एनआईआरएफ रैंकिंग के मुताबिक आईआईटी मद्रास को देश का सर्वेश्रेष्ठ शिक्षण संस्थान घोषित किया गया है। जबकि दूसरे नम्बर पर भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलुरु है। इंजीनियरिंग कैटेगरी में आईआईटी मद्रास की रैंक लगातार आठवें वर्ष भी बरकार रही है। इसके बाद आईआईटी दिल्ली दूसरे नम्बर पर और तीसरे नम्बर पर आईआईटी मुम्बई है। इसी तरह मैनेजमैंट कालेज, फार्मेसी कालेज, लॉ कालेजों की भी रैंकिंग की गई। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत में शिक्षा सुधार लगातार जारी है। उच्च शिक्षा उद्योग पर्याप्त शिक्षण क्षमता प्रदान करने के लिए संघर्ष कर रहा है लेकिन विडम्बना यह है कि भारत का कोई भी संस्थान वैश्विक शीर्ष सौ संस्थानों में अपनी जगह नहीं बना पाया। वैश्विक टॉप 200 में केवल तीन भारतीय संस्थान ही जगह बना पाए हैं। कुल मिलाकर 41 भारतीय संस्थान और विश्वविद्यालय हैं जिन्होंने इस वर्ष क्यूएस विश्वविद्यालय रैंकिंग सूची में जगह बनाई है। क्यूएस विश्व रैंकिंग सूची से पता चलता है कि भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी), बेंगलुरु ने 155 वां वैश्विक रैंक हासिल किया है जो पिछले साल 186वें स्थान से ऊपर है और भारतीय संस्थानों में पहले स्थान पर है। आईआईएससी बेंगलुरु साइटेशन पर फैकल्टी इंडिकेटर में विश्व स्तर पर शीर्ष संस्थानों में भी उभरा है। यह संस्थानों द्वारा उत्पादित अनुसंधान के वैश्विक प्रभाव को इंगित करता है। दोबारा, जब विश्वविद्यालयों को संकाय आकार के लिए समायोजित किया जाता है तो प्रति संकाय सूचक के उद्धरण ने आईआईएससी को 100ध्100 हासिल किया। शीर्ष 200 में अन्य दो स्थानों पर भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) बॉम्बे और आईआईटी दिल्ली वैश्विक 172वें और 174वें स्थान पर हैं। विशेष रूप से, आईआईटी बॉम्बे और आईआईटी दिल्ली दोनों ने पिछले साल से आईआईटी बॉम्बे को 177 वें और आईआईटी दिल्ली को पिछले साल 185 वें स्थान से अपग्रेड किया। फिर से, 200 और 300 शीर्ष वैश्विक संस्थानों के बीच, आईआईटी मद्रास ने 250 वां स्थान हासिल किया, जो कि पिछले वर्ष 255 वें स्थान पर है, आईआईटी कानपुर ने 264 वां स्थान हासिल किया और आईआईटी खड़गपुर ने 270 वां स्थान हासिल किया, दोनों अपने पिछले रैंक से ऊपर खड़े हैं। इससे पता चलता है कि शीर्ष 300 वैश्विक विश्वविद्यालयोंध् संस्थानों में छह भारतीय संस्थान अपनी पहचान बना सकते हैं।विश्व रैंकिंग में भारत के पिछड़ने के कई कारण हैं। पूरी दुनिया शिक्षा के क्षेत्र को बेहतर बनाने में लगी हुई है। हर वह सम्भव कोशिश की जा रही है जिससे घ्शिक्षा व्यवस्था को नया आयाम दिया जा सके। भारत में कुछ बड़े विश्वविद्यालयों आईआईटी, आईआईएम और कुछ अन्य को छोड़कर कोई बड़े बदलाव नहीं किए गए। बड़े बदलाव नहीं होने के कारण आधुनिक युग में भारतीय शिक्षा प्रणाली को कमजोर माना जाता है। यहां प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक चुनौतियां ही चुनौघ्तयां हैं। यही कारण है कि भारत से प्रतिभाओं का पलायन लगातार हो रहा है। सबसे बड़ा सवाल शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर बना हुआ है। आज हर अभिभावक अपने बच्चों को शिक्षा के लिए विदेश भेजने के इच्छुक दिखाई देते हैं। दरअसल हमने कभी उन कारणों की तलाश ही नहीं की जिनके चलते ऐसी स्थिति पैदा हुई है। भारत की बात करें तो यहां केवल 20.4 फीसदी आबादी ही यूनिवर्सिटी या कॉलेज या फिर वोकेशनल कोर्स पूरा कर पाई है। हालांकि भारत सरकार ने शिक्षा के लिए अधिक बजट आवंटन करने की घोषणा की है। शिक्षा के क्षेेत्र में निजी क्षेत्र की महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन निजी क्षेत्र वही निवेश करता है जहां उनको फायदा नजर आए। निजी क्षेत्र ने शिक्षा का पूरी तरह से व्यवसायीकरण कर दिया है जिसके चलते शिक्षणघ्की गुणवत्ता में बहुत कमी आई है। किसी भी शिक्षण संस्थान की गुणवत्ता उसकी फैकल्टी पर निर्भर करती है। फैकल्टी में योग्य और प्रशिघ्क्षित शिक्षक चाहिए। निजी क्षेत्र युवा स्नातकों कोघ्ऐसे प्रोफैसरों के रूप में भर्ती करते हैं जिनके पास कोई अनुभव या ज्ञान नहीं होता। वह ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना चाहता है। निजी क्षेत्र को छात्रों में रचनात्मकता, नए शोध और नए कौशल को सीखने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने में कोई रुचि नहीं है। देश में कोटा प्रणाली बहुत ही विवादास्पद है। उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में कोटा प्रणाली अभी भी बाधक बनी हुई है। युवा पीढ़ी को सिर्फ नौकरी और भारी-भरकम वेतन पैकेज लेने में ही अधिक रुचि है। इसलिए अभिभावक भी बच्चों को देश की सेवा के लिए प्रेरित करने की बजाय अच्छी नौकरी तलाश करने के लिए ही प्रेघ्रित करते हैं। अगर प्राथमिक शिक्षा की बात की जाए कक्षा एक में केवल 16 फीसदी बच्चे ही निर्धारित स्तर का पाठ पढ़ सकते हैं। जबकि 40 फीसदी बच्चे अक्षर भी नहीं पहचान सकते। कक्षा 5 में केवल 50 फीसदी बच्चे ही कक्षा दो का पाठ पढ़ पाते हैं। देश के भीतर राज्य, शहरों और गांव में एक बहुत बड़ा घ्घ्डिजिटल डिवाइड पैदा हो गया है। ग्रामीण बच्चों के पास न तो कम्प्यूटर है और न ही इंटरनेट की सुविधा। जबकि शहरों और महानगरों में यह सुविधाएं मौजूद हैं। कुछ महानगरों को छोड़कर देश भर में सरकारी स्कूलों की हालत भी काफी खस्ता है। शिक्षा को लेकर अमीर और गरीब में एक बहुत बड़ी खाई पैदा हो गई है। अभिभावक महंगे स्कूलों या कालेजों में अपने बच्चों को शिक्षा दिलवाने में असमर्थ हैं इसलिए सभी को एक समान अवसर उपलब्ध नहीं होते। शिक्षा के ढांचे में अमूलचूल परिवर्तन होना चाहिए। हमें अनुसंधान और नए-नए अविष्कारों पर बल देना चाहिए। क्योंकि वर्तमान सभ्यता का स्वरूप निरंतर किए गए आविष्कारों तथा अनुसंधानों का ही परिणाम है। विदेशों में पढ़े छात्र आज बिजनेस हो या आईआईटी क्षेत्र स्टार्टअप हो या टैक्नीकल क्षेत्र उनमें सफल हो रहे हैं। वहां की शिक्षा किताबी नहीं व्यावहारिक है।

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