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मेरिका में नस्लभेद

apartheid in merica

अआदित्य नारायण

पूरी दुनिया को मानवाधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाने वाले अमेरिका में नस्लभेद की घटनाएं रोजमर्रा की बात है। अमेरिका में एक के बाद एक हो रही नस्लभेद की घटनाएं उसके तमाम वादों की पोल खोल देती है। नस्ल के आधार पर वहां विश्वविद्यालयों में दाखिला देने का मुद्दा फिर चर्चा में है। नस्ल के आधार पर प्रवेश देने का मामला हार्वर्ड और यूनिवर्सिटी ऑफ नोर्थ कैरोलिना जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों से जुड़ा हुआ है। अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में विश्वविद्यालय में नस्ल के आधार पर दाखिले देने की प्रथा पर रोक लगा दी है। सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की बैंच ने यह फैसला सुनाया है। अमेरिका में अफ्रीकी अमेरिकियों (अश्वेत) और अल्पसंख्यकों को कॉलेजों में दाखिला देने का नियम है। इसे सकारात्मक पक्ष कहा जाता है। इस आरक्षण केघ् खिलाफ दो याचिकाएं लगाई गई थीं जिनमें दलील दी गई थी कि यह पालिसी श्वेत और एशियन अमेरिकन लोगों के साथ भेदभाव है। चीफ जस्टिस जॉन रॉबर्ट्स ने फैसला सुनाते हुए कहा है कि लम्बे समय से विश्वविद्यालयों ने यह गलत धारणा बना रखी है कि किसी व्यक्ति की योग्यता उसके सामने आने वाली चुनौतियां उसका कौशल अनुभव नहीं बल्कि उसकी त्वचा का रंग है। विश्वविद्यालयों की नीति इस सोच पर भी टिकी है कि एक ब्लैक स्टूडैंट में कुछ ऐसी योग्यता है जो व्हाइट स्टूडैंट में नहीं है। चीफ जस्टिस ने इस तरह की नीति को बेतुकी और संविधान के घ्खिलाफ करार दिया है और कहा है कि विश्वविद्यालयों के अपने नियम हो सकते हैं लेकिन इससे उन्हें नस्ल के आधार पर भेदभाव का लाइसैंस नहीं मिल जाता। सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अमेरिका की राय बंटी हुई है। राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इस फैसले पर आपत्ति जताते हुए अपनी असहमति व्यक्त की है। उनका कहना है घ्कि अमेरिका ने दशकों से दुनिया के सामने एक मिसाल पेश की है। यह फैसला उस मिसाल को खत्म कर देगा। अमेरिका में अब भी भेदभाव बरकरार है और इस सच्चाई को दरकिनार नहीं किया जा सकता। जबकि दूसरी ओर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और बराक ओबामा ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया। डोनाल्ड ट्रम्प ने कहा है कि जो लोग देश के विकास के लिए मेहनत कर रहे हैं उनके लिए यह फैसला बहुत अच्छा है। जबकि बराक ओबामा का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला यह सुनिश्चित करने के लिए जरूरी था कि नस्ल की परवाह किए बिना सभी छात्रों को सफल होने का अवसर मिले। अमेरिका में अफर्मेटिव एक्शन 1960े में लागू किया गया था। इसका मकसद देश में डायवर्सिटी को बढ़ावा देना और ब्लैक कम्युनिटी के लोगों के साथ भेदभाव को कम करना था। सुप्रीम कोर्ट अमेरिका की यूनिवर्सिटीज में इस पॉलिसी का 2 बार समर्थन कर चुका है। पिछली बार ऐसा 2016 में हुआ था। हालांकि, अमेरिका की 9 स्टेट्स पहले ही नस्ल के आधार पर कॉलेजों में एडमिशन पर रोक लगा चुकी हैं। इनमें एरिजोना, कैलिफोर्निया, फ्लोरिडा, जॉर्जिया, ओकलाहोमा, न्यू हैम्पशायर, मिशिगन, नेब्रास्का और वॉशिंगटन शामिल हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद याचिका दायर करने वाला ग्रुप स्टूडैंट फॉर फेयर एडमिशन के कार्यकर्ता जश्न मना रहे हैं। जबकि कई अश्वेत संगठन इसका विरोध कर रहे हैं। प्रथम दृष्टि में यह फैसला सही लगता है। क्योंकि आम धारणा यही है कि दाखिलों में नस्ल जाति को प्राथमिकता देने की बजाय मैरिट को आधार बनाया जाए लेकिन अमेरिका में रंगभेद और नस्लभेद का इतिहास बहुत पुराना है। आधिकारिक रूप से कानून की नजर से हर अमेरिकी नागरिक समान है लेकिन हकीकत में अमेरिका की पुलिस सड़कों पर लोगों को उनके रंग और लुक के कारण रोकती है। भले ही वे संदिग्ध न भी हो तो भी उन्हें रोका जाता है। गिरफ्तारी के दौरान अगर पुलिस ने कोई बर्बर गलती की जैसा कि जार्ज क्लायड के मामले में हुआ था। यानि एक श्वेत पुलिस अधिकारी ने उसकी हत्या कर दी थी, के बाद जगह-जगह प्रदर्शन हुए थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि अमेरिकी प्रशासन ने हमेशा ही ऐसे मामलों को दबाया है। काले लोग न केवल पुलिस से बल्कि ऑफिसों में भी गोरों की घिनौनी हरकतों को बर्दाश्त करते हैं। अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी नस्लवाद को खत्म करने की कई घ्कोशिशें कीं लेकिन वे भी नस्लभेद के सामने लाचार दिखाई दिए। उनके कार्यकाल में 18 साल के निहत्थे काले युवक माइकल ब्राउन को 8 गोलियां मार कर मार दिया गया था। अमेरिका वास्तव में प्रवासियों का देश है लेकिन गोरे वहां कालों से नफरत करते हैं, यह एक घातक प्रवृत्ति है। अमेरिका के भीतर तो नस्लभेद बरकरार है लेकिन वहां भारतीय राजनयिक, अभिनेता और अभिनेत्रियां भी नस्लीय भेदभाव और टिप्पणियों का शिकार हो चुके हैं। ऐसे में क्या उम्मीद की जा सकती है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद वहां अश्वेतों को आसानी से दाखिले मिल जाएंगे। पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान अल्पसंख्यकों के अधिकारों को लेकर भारत को ज्ञान तो बहुत दिया। काश! उन्होंने अपने भीतर झांक कर देख लिया होता।

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