
रिश्तो का एहसास
मानवीय संबंधों में सामाजिकता और मिठास…?
प्रेम, अपनापन, सौहार्द जैसे मनुष्य को आपस में जोड़ने वाले गुणों का अभाव..!!
संबंधों का बिखराव और बिगड़ता सद्भाव कहीं न कहीं यह सोचने पर मजबूर..
क्या आज के परिवेश में यह संभव नहीं है कि मानवीय संबंधों में सामाजिकता और मिठास कायम रहे? दुखद और कड़वा सच है कि आज के वातावरण में अड़ोस-पड़ोस के रिश्तों और व्यवहार में आमतौर पर दिन-प्रतिदिन प्रेम, अपनापन, सौहार्द जैसे मनुष्य को आपस में जोड़ने वाले गुणों का अभाव होता जा रहा है। ऐसा लग रहा है कि बदलाव इंसानियत के गुणों को लील रहा है। आज छोटे शहरों और गांवों में तो लोग कुछ हद तक आपस में एक दूसरे से जुड़े हैं, लेकिन उनके बीच भी रिश्तों में भी नई खाई बन रही है। रिश्तों में प्रगाढ़ता और लगाव से आपस में और पड़ोस में एक दूसरे से तारतम्य जुड़ा रहता है। परिवार, रिश्तेदार और पड़ोस के लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में काम आते हैं और सहयोग के दरवाजे खुले रहने में आत्मीयता रहती है।महानगरों में यह दिक्कत और ज्यादा है। देखने में यह आ रहा है कि यहां रिश्ते सिर्फ रस्मी, कागजी और स्वार्थ के रस में सने मालूम पड़ते हैं, जिससे सहनशक्ति का अभाव यहां सरेआम दिखता है। बड़े शहरों में लोग आपस में एक-दूसरे को जानते भी नहीं और बहुत मामलों में वे खुद भी जानना नहीं चाहते। आसपास क्या घट रहा है, कौन रह रहा है आदि के बारे में कुछ पता नहीं रहता। ऐसा लगता है कि एक-दूसरे के सुख-दुख से उनका कोई लेना-देना नहीं है और लगता है कि इंसानियत यहां सबसे कमजोर पड़ रही है। इससे परिवार और समाज के संबंधों पर भी बुरा असर पड़ा है। परिवार के बच्चे इसीलिए बिगड़ रहे हैं कि पड़ोस की आंख उस पर अब नहीं है। यह अब सपना हो गया है और लगता है कि वह समय अब गया जब परिवार और पड़ोस में रिश्तों में मिठास मिलती थी।आज जिंदगी भागमभाग, आधुनिकता की चकाचौंध, बच्चों का समय से पहले परिपक्व होना, खोता बचपन, पैसे कमाने की अंधी होड़ आदि बातों से लगता है कि जैसे अपनापन कहीं गुम हो गया है। अपने परिवार और पड़ोसियों से रिश्तों की गहराई कम होना, परस्पर संबंधों का बिखराव और बिगड़ता सद्भाव कहीं न कहीं यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या आधुनिकता के पिछलग्गू बन कर हम रिश्तों को बचा पाएंगे। यह देख कर निराशा होती है कि मुसीबत के समय जो व्यक्ति हमारे सबसे पहले और सबसे ज्यादा काम आ सकता है, उसी के महत्त्व को हम दरकिनार करते जा रहे हैं। ऐसे दौर में आज दोस्ती-यारी में गुम रहना युवाओं को भटकाने का भी जरिया बन रही है।शायद हम अंदर से सिकुड़ रहे हैं, लेकिन एक तरह की खुशफहमी के शिकार हैं। अगर हम मशीनीकरण के इस युग में इंसानियत को बचा कर रखना चाहते हैं तो हमें परिवार और खासकर पड़ोस से सबसे ज्यादा मधुर संबंध बना कर रखने होंगे। तभी हम बिखरते रिश्तों को संजो कर रख पाएंगे। इससे जहां समाज में सौहार्द का वातावरण बनेगा, वहीं सुरक्षित, सहयोगी और सहन शक्ति की संस्कृति का विकास भी होगा। आगे बढ़ना बुरा नहीं है, समय के साथ चलना गलत नहीं है, आधुनिक होना कोई खराब बात नहीं है, पर इसके लिए क्या यह जरूरी है कि हम उन सभी संबंधों को पीछे छोड़ दें जो हमारे विकास की मूलभूत आवश्यकता हैं।
रिपोर्ट रमेश सैनी सहारनपुर इंडियन टीवी न्यूज़