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मानसून की कसक

crunch of monsoon

रत में सदियों से मानसून का इंतजार पलक-पांवड़े बिछाकर किया जाता रहा है। आजादी के सात दशक बाद भी भारतीय कृषि की सिंचाई के लिये मानसून पर निर्भरता बताती है आज भी मानसून अन्न उत्पादन की धुरी है। यही वजह है कि भारतीय साहित्य वर्षा ऋतु के गुणगान से पुष्पित-पल्लवित रहा है। लेकिन हाल के वर्षो में मानसून आगमन के साथ ही शहरी लोगों के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आती हैं। हाल ही में मानसून की दस्तक के साथ ही हरियाणा की आधुनिक नगरी गुरुग्राम व अन्य शहरों की सड़कों में कारें व अन्य वाहन तैरते नजर आये। इससे छोटे वाहनों व पैदल चालकों की दुश्वारियों का अंदाजा लगाया जा सकता है। थोड़ी बारिश में भी सड़कें नालों में तब्दील होने लगती हैं। प्रशासन के अधिकारियों को पता होता है कि मानसून किस समय पर आएगा। सूचना माध्यमों में लगातार मानसून आगमन की तिथियों का उल्लेख होता भी है। लेकिन काहिल तंत्र के कान पर जूं नहीं रेंगती। विभिन्न विभागों में जल निकासी के लिये फंड भी होते हैं ताकि शहरों में जल भराव की स्थिति न बने। नागरिकों को मुश्किलों का सामना न करना पड़े। लेकिन समय रहते नालियों व सीवरेज व्यवस्था की खामियों को दूर नहीं किया जाता। जरा सी बारिश अधिकारियों व स्थानीय निकायों के दावों की पोल खोल देती है। हाल के दिनों में ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव के चलते बारिश के पैटर्न में भी बदलाव आया है। अब बारिश रिमझिम-रिमझिम होने के बजाय ज्यादा तेजी से होती है। बरसने की अवधि कम लेकिन पानी की मात्रा अधिक होती है। कम समय में ज्यादा बारिश होने से जलभराव का संकट पैदा होता है जिसके चलते सामान्य जनजीवन बुरी तरह प्रभावित होता है। लेकिन विडंबना यह कि हर साल पैदा होने वाले संकट के बजाय पूरे साल इस समस्या के निराकरण के लिये गंभीर प्रयास होते नजर नहीं आते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि देश में कॉलोनियों व अपार्टमेंट्स के निर्माण के दौरान जल निकासी के लिये जरूरी वैज्ञानिक तौर-तरीकों को नहीं अपनाया जाता है। शहरी निर्माण के नियोजन की दिशा में सार्थक पहल होती नजर नहीं आती। होना तो यह चाहिए कि किसी भी मकान का नक्शा पास होने से निर्माण तक जल निकासी व संरक्षण के सख्त प्रावधान हों। लेकिन भू माफियाओं ने उन जगहों को येन-केन-प्रकारेण आवासीय स्थलों में बदल दिया जो कभी पानी की स्वाभाविक निकासी का जरिया होते थे। दरअसल, शहरी संस्कृति में लोगों की पानी की उपयोगिता तो बढ़ी, लेकिन उस अनुपात में प्रयोग किये गये पानी के निकासी की व्यवस्था नहीं की गई। पानी की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि वह ऊंचाई से निचले स्थानों की ओर जाता है। पानी के प्रति संवेदनशील दृष्टि रखने वाले लोग तो यहां तक कहते हैं कि पानी अपनी जमीन तलाशता है जिस पर इंसान कब्जा करके निर्माण कर बैठा है। यदि पूरे देश में सर्वे किया जाये तो सामने आएगा कि देश में लाखों तालाबों, बावड़ियों, नालों-नालियों पर अतिक्रमण करके भू-माफिया ने निर्माण कर लिया है। बारिश के पानी के स्वाभाविक रास्ते पर जब अवैध निर्माण होगा तो जाहिर है पानी भी इंसानी इलाकों में अपना रास्ता तलाश करेगा। यह सामान्य सी बात हमारे नीति-नियंताओं और बिल्डर्स की समझ में नहीं आ रही है, जिसका खमियाजा आम लोगों को दिक्कत उठाने के रूप में भुगतना पड़ रहा है। वहीं दूसरी ओर हमारे सत्ताधीशों ने बारिश के पानी को सहेजने के गंभीर प्रयासों को तरजीह नहीं दी है। देश में मानसून के दौरान जीवनदायी पानी यूं ही नदी-नालों से होता हुआ नहरों के जरिये समुद्र की तरफ बढ़ जाता है। इस पानी को भू-गर्भ में पहुंचाकर हम पानी संरक्षण कर सकते थे। निस्संदेह, देश में लगातार भूगर्भीय जल खत्म हो रहा है। इसके चलते डार्क जोन बनने से खेती के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है। हम अगर अब भी न चेते तो देश के कई बड़े महानगर आने वाले दिनों में भीषण जल संकट का सामना करेंगे। जिसके लिये अभी से कारगर नीतियां बनाने की जरूरत है।

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