राजस्थान से भारत जोड़ो यात्रा की एक सुंदर तस्वीर सामने आई, जब रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गर्वनर रघुराम राजन, कांग्रेस सांसद राहुल गांधी का हाथ पकड़े उनके साथ चलते नजर आए। अर्थशास्त्री रघुराम राजन इस समय अमेरिका में अध्यापन करते हैं। उनका कामकाजी अतीत और वर्तमान संतोषजनक, सुरक्षित कहा जा सकता है। वे हिंदू हैं, इस लिहाज से भारत में भी मौजूदा माहौल में उनके लिए कोई असुरक्षा का बोध नहीं है। यानी नफरत से उपजी हिंसा, बेरोजगारी या महंगाई जैसे कोई खतरे कम से कम उनके सामने नहीं है। इसके बावजूद वे इन समस्याओं के खिलाफ निकाले जाने वाली भारत जोड़ो यात्रा में अपनी भागीदारी देने पहुंचे। उनसे पहले अन्य कई हस्तियां भी भारत जोड़ो यात्रा का हिस्सा बनीं, वे भी सभी अपने-अपने क्षेत्रों में एक मुकाम हासिल कर चुकी हैं। राहुल गांधी का साथ देने पहुंचे इन तमाम लोगों की चाहत यही है कि भारत नए सिरे से जुड़े और हमेशा की तरह मजबूत बना रहे। कायदे से देश को सशक्त बनाने वाली ऐसी किसी भी यात्रा का दलगत मतभेदों से ऊपर उठकर स्वागत होना चाहिए। आप राजनैतिक विचारधारा से बंधे होने के कारण भले ऐसी किसी पहल में खुद भागीदारी न करें, लेकिन इसके विरोध का भी कोई औचित्य नहीं है। मगर भाजपा शुरु से इस यात्रा के खिलाफ टिप्पणियां कर रही है। राहुल गांधी की छवि खराब करने के साथ-साथ उन लोगों पर भी उंगलियां उठा रही है, जो इस यात्रा में उनके साथ चले। भाजपा अगर राष्ट्रवाद का परचम बुलंद करती है, तो उसे सबसे पहले ये समझना होगा कि इस राष्ट्र की असली ताकत क्या है। भारत केवल एक धर्म तक सीमित नहीं है। यहां दुनिया के सभी धर्मों के लिए सम्मान और बराबरी का अधिकार है। वैचारिक मतभिन्नता के लिए स्थान है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता यहां संवैधानिक हक है। लेकिन अभी इन तमाम मूल्यों को दरकिनार किया जा रहा है। हाल ही में इसके दो उदाहरण सामने आए हैं। पहला महाराष्ट्र में कोबाद गांधी के संस्मरण के मराठी अनुवाद को दिया गया पुरस्कार महाराष्ट्र सरकार ने वापस ले लिया है। दूसरा भीमा कोरेगांव मामले में गिरफ्तार किए गए फादर स्टेन स्वामी के कम्प्यूटर में हैकर्स ने आपत्तिजनक दस्तावेज डाले थे, इसका खुलासा अमेरिकी फोरेंसिक फर्म ने किया है। गौरतलब है कि महाराष्ट्र में भीमा-कोरेगांव में महार समुदाय ने पेशवाओं के खिलाफ अंग्रेजों की ओर से लड़ाई लड़कर ऐतिहासिक जीत हासिल की थी। यहां दलितों के शौर्य की याद दिलाते हुए एक विजय स्तंभ बनाया गया, जिसमें हर साल 1 जनवरी को दलित समुदाय के लोग जुटते हैं। 2018 में ऐसी ही एक सभा में हिंसा भड़क उठी थी। पुलिस ने इसके लिए 31 दिसंबर 2017 को पुणे में एल्गार परिषद की बैठक में दिए गए भाषणों को जिम्मेदार माना। इसके बाद इस सिलसिले में कई लोगों को गिरफ्तार किया गया। पुलिस का दावा है कि इस बैठक को माओवादियों का समर्थन प्राप्त था और इसमें देश को अस्थिर करने की साजिश रची गई। झारखंड में कई दशकों से आदिवासियों के बीच काम कर रहे फादर स्टेन स्वामी को भी इसके लिए गिरफ्तार किया गया। अक्टूबर 2020 से जेल में बंद फादर स्टेन स्वामी 83 बरस के थे और कई बीमारियों से ग्रसित थे। उन्होंने अंतरिम जमानत की अपील की थी और अदालत में जेल की खराब सुविधाओं का हवाला देते हुए कहा था कि यही स्थिति जारी रही तो मेरी मौत हो जाएगी। मगर मामले की जांच कर रही एनआईए ने उनकी जमानत का विरोध ये कहकर किया था कि वे एक माओवादी हैं और देश को अस्थिर करने की साजिश उन्होंने रची है। मई 2021 आते-आते उनकी तबियत और अधिक बिगड़ गई। अदालत के आदेश पर उन्हें अस्पताल शिफ्ट किया गया, लेकिन आखिरकार फादर स्टेन स्वामी की मौत हो गई। अब अमेरिकी फोरेंसिक फर्म आर्सेनल कंसल्टिंग का कहना है कि फादर स्टेन स्वामी के कंप्यूटर को हैक करके लगभग 50 फाइलों को उसमें प्लांट किया। रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि कंप्यूटर ड्राइव में दस्तावेज को उस तरीके से प्लांट किया गया जिससे यह साबित हो कि स्वामी और माओवादियों के बीच संबंध थे।
फादर स्टेन स्वामी वृद्धावस्था के कारण कई बीमारियों से ग्रसित थे, और देश की व्यवस्था पूर्वाग्रहों से ग्रसित है। दोनों के घातक मेल के कारण उनकी जिंदगी नहीं बचाई जा सकी। जब अर्बन नक्सल जैसे शब्दों को तार्किक और न्यायिक ठहराने की कोशिश चल रही हो, तब ऐसे और कितने लोगों को केवल उनकी विचारधारा के कारण सत्ता का कोपभाजन बनना पड़ सकता है, यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है। माओवादी विचारों से संबंधित होने के कारण ही कोबाद गांधी की किताब को पुरस्कृत होने का पात्र नहीं माना गया। लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता कोबाद गांधी की किताब फैक्चर्ड फ्रीडम रू ए प्रिजन मेमॉयर का मराठी अनुवाद अनघा लेले ने किया था। जिसके लिए मराठी भाषा विभाग ने अनघा लेले को स्वर्गीय यशवंतराव चव्हाण साहित्य पुरस्कार 2021 देने की घोषणा 6 दिसंबर को की थी। लेकिन अब एक सरकारी आदेश जारी कर बताया गया है कि चयन समिति के निर्णय को श्प्रशासनिक कारणोंश् से उलट दिया गया, और पुरस्कार को वापस ले लिया गया है। आदेश में यह भी कहा गया है कि समिति को भी खत्म कर दिया गया है। दरअसल कोबाद गांधी के कथित माओवादी संबंध होने के कारण सोशल मीडिया पर इस फैसले की काफी आलोचना हो रही थी, जिसके बाद शिंदे सरकार ने ये फैसला लिया।सोशल मीडिया के दबाव में आकर जो सरकार अपना फैसला बदल ले, वह किस तरह का मजबूत प्रशासन दे रही होगी, यह समझा जा सकता है। वैसे सरकार के इस फैसले के विरोध में समिति के तीन सदस्यों डॉ. प्रज्ञा दया पवार, नीरजा और हेरंब कुलकर्णी ने महाराष्ट्र साहित्य एवं संस्कृति बोर्ड से इस्तीफा दे दिया है। उन्होंने इस फैसले को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के विरुद्ध बताया है। कोबाद गांधी की इस किताब पर कोई प्रतिबंध नहीं है, फिर भी सरकार ने ऐसा फैसला लिया। इससे पता चलता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए स्थान सीमित होता जा रहा है।
देश में लगातार इस तरह की घटनाएं हो रही हैं, जिनसे लोकतांत्रिक मूल्यों को हानि पहुंच रही है। समानता, वैचारिक स्वतंत्रता, मानवीय गरिमा, विरोध के लिए स्थान इन सबके लिए लगातार आवाज उठाने की जरूरत है। भारत जोड़ो यात्रा इसी मुहिम को आगे बढ़ा रही है।