Follow Us

पवारों की ‘पावर’ और जनता

Pawar's 'power' and the public

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के संस्थापक व अध्यक्ष श्री शरद पवार को पार्टी के अध्यक्ष पद से हटाया जाना उसी प्रकार देखा जायेगा जिस प्रकार कोई व्यक्ति सत्ता और ताकत के मद में मगरूर होकर किसी बाजाब्ता मकान मालिक को उसी के घर से बेदखल करने का हुक्म जारी कर दे। हकीकत तो यही रहेगी कि 1999 में कांग्रेस से अलग होकर श्री पवार ने ही राष्ट्रवादी कांग्रेस की स्थापना की थी। यह भी हकीकत है कि पूरे महाराष्ट्र में श्री पवार को ही लोग राष्ट्रवादी कांग्रेस का पर्याय मानते हैं। उन्हें ऐसा नेता माना जाता है कि वह जहां खड़े हो जाते हैं वहीं से उनकी पार्टी शुरू हो जाती है। मगर गंभीर सवाल यह भी है कि उनके भतीजे अजित पवार और चेले प्रफुल्ल पटेल में इतनी हिम्मत कहां से आ गई कि वह न केवल उनकी पार्टी से बगावत कर दें बल्कि उन्हें पार्टी अध्यक्ष के पद से हटाने की भी घोषणा कर दें। यह सवाल जरा भी पेचीदा नहीं है कि श्री शरद पवार ही अभी तक अपनी पार्टी के कानूनन व विधिसम्मत अध्यक्ष हैं। चुनाव आयोग को अजित पवार ने जो चिट्ठी भेजी है उसमें पार्टी में पारित उस प्रस्ताव पर कोई तारीख नहीं दी गई है जिसमें कहा गया है कि पार्टी ने श्री शरद पवार को अध्यक्ष पद से हटा कर इस पर श्री अजित पवार की नियुक्ति की सहमति दी है। जाहिर है कि यह प्रस्ताव श्री शरद पवार से विद्रोह करने वाले नेता श्री अजित पवार की उपमुख्यमन्त्री पद की शपथ लेने के बाद की दिमागी उपज है क्योंकि गत रविवार को जब अजित पवार ने उपमुख्यमन्त्री पद की शपथ ली तो उसके कुछ समय बाद ही श्री शरद पवार ने उनके साथ शपथ लेने वाले अन्य आठ राष्ट्रवादी कांग्रेस के विधायकों को भी पार्टी से निष्कासित कर दिया था। श्री पवार उस समय बाकायदा सर्वस्वीकार्य पार्टी अध्यक्ष थे और वह उस दिन बुधवार तक भी पार्टी के अध्यक्ष थे जिस दिन दोनों ही गुटों ने अपने-अपने समर्थक विधायकों की बैठक मुम्बई में ही की थी। अजित पवार को इस दिन शाम को सूझा कि श्री पवार को पार्टी अध्यक्ष पद से हटाने की घोषणा यदि नहीं की जाती है तो वह कानूनी रूप से राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का प्रतिनिधित्व नहीं कर पायेंगे। श्री पवार ने जिस दिन अजित समेत मन्त्री बनने वाले जिन नौ विधायकों को अपनी पार्टी से निष्कासित किया था उसी दिन उसकी सूचना चुनाव आयोग को दे दी थी। जो लोग भी राजनैतिक- संसदीय नियमों के जानकार हैं उन्हें मालूम है कि पार्टी अध्यक्ष के अधिकारों के साथ चुनाव आयोग किसी प्रकार का समझौता नहीं कर सकता है क्योंकि ये अधिकार पार्टी संविधान में उल्लिखित होते हैं जिनका संरक्षण भी चुनाव आयोग ही करता है। बेशक बुधवार को हुई दो समानान्तर बैठकों में अजित पवार के पाले में 29 विधायक आये और श्री शरद पवार के पास 17 विधायक लेकिन इसके आधार पर अजित पवार खुद को असली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी नहीं बता सकते हैं क्योंकि पार्टी अध्यक्ष की ही होती है। मगर लगता है कि अजित पवार पिछले साल शिवसेना में हुए विभाजन का उदाहरण लेकर चल रहे हैं। इस मामले में विगत महीने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये फैसले का संज्ञान लेना होगा। इस फैसले के कई आयाम हैं। इसमें किसी भी पार्टी की आन्तरिक राजनीति से लेकर विधानसभा के भीतर अध्यक्ष के अधिकारों व राजनैतिक दल के पार्टी संविधान के मुतल्लिक कई प्रकार के दिशा नियामक सिद्धान्तों की व्याख्या भी होती है। अतः मामला इतना आसान नहीं है जितना कि अजित पवार समझ रहे हैं। जहां तक चुनाव आयोग का सवाल है तो उसे भी इस मामले में फूंक-फूंक कर कदम रखना होगा और अजित पवार गुट को असली राष्ट्रवादी कांग्रेस केवल विधायकों के संख्याबल के आधार पर मानने से पहले सभी कानूनी पहलुओं को अपनी नजर में लेना होगा। मगर इससे पहले विधानसभा में ही अजित पवार को सिद्ध करना होगा कि उनके खेमे में राष्ट्रवादी कांग्रेस के कुल 53 विधायकों में से कम से कम 36 विधायक हैं जो दो-तिहाई होते हैं। यदि इतने विधायक अजित पवार जुटा लेते हैं तो वह सदन में अलग गुट के तौर पर मान्यता प्राप्त कर सकते हैं और अपना विलय किसी अन्य पार्टी में कर सकते हैं। इसके बाद ही चुनाव आयोग उनके असली पार्टी होने के दावे पर विचार कर सकता है और चुनाव चिन्ह व पार्टी नाम का फैसला कर सकता है। शिवसेना के मामले में उद्धव ठाकरे कुछ चूक कर गये थे मगर श्री शरद पवार संसदीय मामलों के खुद को बहुत बड़े जानकार माने जाते हैं। अतः उन्होंने रविवार को ही जो कदम चल दिया है उसकी काट ढूंढना समुद्र में से मोती निकालने की मानिन्द ही कहा जायेगा। राजनीति का हर विद्यार्थी जानता है कि राजनैतिक दल उसके नेता की लोकप्रियता के आधार पर खड़े होते हैं। 1969 में कांग्रेस का जब पहली बार विभाजन हुआ तो हमने देखा कि इन्दिरा गांधी ही अकेले होते हुए भी असली कांग्रेस बन गईं। मगर 1971 का चौधरी चरण सिंह का मामला बड़ा ही दिलचस्प है। अपनी पार्टी भारतीय क्रान्ति दल का विस्तार करने के चक्कर में स्व. चौधरी साहब ने देश के माने हुए होटल व्यवसायी स्व. मोहन सिंह ओबेराय को इसका राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया था। ओबेराय साहब ने चौधरी साहब की ग्रामीणोन्मुख राजनीति से मतभेद रखते हुए उन्हें ही क्रान्ति दल से निकाल दिया। इस पर पार्टी के कार्यकर्ताओं में कोहराम मच गया और उन्होंने ओबेराय को ही पार्टी से पूरी तरह बेदखल कर दिया और जहां चौधरी साहब खड़े हो गये वहीं क्रान्ति दल बन गया। 1978 में पुनः इन्दिरा जी ने यही किया और अपने पीछे कांग्रेस पार्टी को खड़ा कर दिया। अतः अजित दादा को अपने चाचा की उम्र का नहीं बल्कि अपनी राजनैतिक हैसियत का हिसाब देखना चाहिए।

Leave a Comment