
पत्रकार की कलम से
पत्रकारिता को समर्पित शशिकांत त्यागी पत्रकार बदलते दौर में दम तोड़ते पत्रकार और पत्रकारिता के लिए जिम्मेदार कौन?
बनाकर मुझे स्तम्भ नाम का, बोझ मुझपर हर तरफ बिखेरा है, मुझपर रूके मकानों पर हर तरफ अमनो चैन का बसेरा है, बिसरा कर जान की फिकर मैने तोड़ा ढकी मैली चादरों का पहरा है फिर भी आज मैं ही अकेला मेरा ही भीड़ में ओझल सा चेहरा है। टूट जाती हैं कई हसरतें दिल में आने से पहले क्योंकि मुफलिसी से नाता हमारा गहरा है।
पत्रकार एक ऐसा शब्द जिसे देश में आजादी की लड़ाई में एक ऐसी पहचान मिली जिसके कारण पत्रकारिका को आजाद देश के लोकतंत्र में चौथा स्तम्भ कहा जाने लगा। आजादी के समय आजादी की तमाम लड़ाईयों और आजादी के नायकों के बीच पत्रकारिता ने एक महत्पूर्ण भूमिका अदा की थी जिसके एवज में ही आजाद भारत में इसे चौथा स्तम्भ कहा गया। इसमें कोई दो राय होनी भी नहीं चाहिए कि यदि ये पत्रकारिता न और पत्रकार न होते तो देश के तमाम नायकों की ऐसी शहादतें जिन्हें अंग्रेज अपने कैदखानों से बाहन निकलने ही नहीं देते वो वृतान्त देश की जनता तक नहीं पहुचते और जनता का आक्रोश इन मदमस्त मदान्ध अंग्रेजों के बहरे कानो तक भी न पहुच पाता और आजादी का श्रेय जो देश के महान नायकों को दिया गया वो शायद इतना सरल नहीं होता। मगर इसके बाद भी पत्रकार और पत्रकारिता को जो सम्मान जो स्थान देश में मिलना चाहिए वो नहीं मिल सका लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ भी महज कहा गया जिसके प्रमाणीकरण के लिए पत्रकार और पत्रकारिता के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की गई जिससे सीना ठोक कर कहा जाए कि इसलिए हम लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ हैं। आजादी के बाद से ही पत्रकार और पत्रकारिता को छोड़ दिया गया है उनके ही हाल पर, आप यदि पत्रकारिता कर रहे हैं तो वह आपकी स्वैच्छिक रूचि है यदि आप सिर्फ सच को दिखाने और सामने लाने में रूचि रख कर पत्रकारिता कर रहे हैं तो यह तय है कि आपको धनाभाव से गुजरना ही पड़ेगा, और परिवार की समस्याओं के आगे एक पत्रकार अपनी पत्रकारिता का आखिरकार गला घोंट देता है और या तो वो पत्रकार पत्रकारिता ही छोड़ देता है अथवा पत्रकारिता में ही रह कर पत्रकारिता के पाक साफ दामन पर पैबंद लगाने का काम कर गुजरता है। आजादी के बाद से ही अभावों से गुजरती पत्रकारिता को सम्मान की दृष्टि तो मिलती रही मगर पत्रकारों के अधिकारों उसके सम्मान उसकी आर्थिक स्थिति, उसकी सुरक्षा की ओर देखने वाली न कोई सरकार आयी और न कोई राजनेता जिसके कारण बदलते परिवेश में पत्रकारिता का स्परूप अलग ही मार्ग पर मुड़ता जा रहा है और शायद इसीलिए पत्रकारों के हिस्से आयी महज सम्मान की थाथी भी अब पत्रकारिता से लुटती जा रही है। वर्तमान की इस बड़ी समस्या का जनक यदि आप पत्रकार को समझते हैं तो अपनी जानकारियों में आपको वृद्वि करने की आवश्यकता है आपको अपने चारों ओर के परिवेश के आंकलन और आजादी के समय से अब तक की सामयकी की तुलना की आवश्यकता है। क्या लोकतंत्र के स्तम्भों न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया में कभी आपने तुलना करने के बारे में विचार किया यदि किया हो तो देखा होगा कि न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका मे लगे लोगों और मीडिया में लगे लोगों की जीवनशैली में क्या अन्तर है और क्या इन तीन स्तम्भों में कार्य कर रहे व्यक्तियों के सामने पत्रकार आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा के मामले में कहीं ठहरता है। क्यों आजादी के ७५ साल बाद भी कोई पत्रकार के हकों के लिए उनके उस सम्मान और आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा के लिए विचार नहीं करता जो इस स्तम्भ के लिए किये गये तमाम दावों और परिभाषाओं के अनुसार इनको मिलने चाहिए। आपकी जानकारी के लिए चार सतम्भों का विवरण देना आवश्यक हो जाता है जो कुछ इस तरह से है
Legislature – responsible for making and adoption of laws in the country. Parliament is a legislative body.
Executive- responsible for implementation of the laws in the country. Prime Minister’s Cabinet and Government Ministries are executive bodies.
Judiciary – responsible for interpretation and application of the laws. By that Judiciary keeps the other two pillars in check and prevents misuse of political power. Courts are judiciary bodies.
Media – responsible for controlling the activities of other pillars and keeping the public informed about them. It represent the eyes and ears of general public
और आपको ये जानना भी अति आवश्यक है कि लोकतंत्र के चारों स्तम्भों में मीडिया ही वह तथाकथित स्तम्भ है जिसे अन्य तीनों स्तम्भों के कार्यो पर कन्ट्रोलिंग पावर की अथारिटी दी गई है, क्या आप सहमत हैं इस कथन से क्या वास्तव में मीडिया को वह अधिकार मिला है, अजी अधिकार को तो छोड़िए क्या पत्रकार और मीडिया को सच कहने और बोलने लायक भी छोड़ा गया है, सोंचिए और यदि बात समझ आ जाये तो टुकड़ों में बंटने के स्थान पर एक जुट होने का प्रयास करिए, शायद कभी एकजुट होकर लगाई गई पुकार दहाड़ बन जाए और इस प्रभुसेवा समान कार्य को उसका वास्तविक स्परूप प्राप्त हो जाए।
रमेश सैनी सहारनपुर इंडियन टीवी न्यूज़