
हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से, “सालों गुजर गए, उनके वादे जमीनी हकीकत कब बनेंगे? बुनकरों का बुरा वक्त कब खत्म होगा? ये हुनरमंद हाथ हथकरघा छोड़ रिक्शा, फावड़ा या कटोरा क्यों पकड़ रहे हैं?”बनारस के पीलीकोठी, बड़ी बाज़ार, छित्तनपुरा, लल्लापुरा, बजरडीहा, सरैया, बटलोइया, नक्खीघाट जैसे इलाकों में बुनकरों की बड़ी आबादी बसती है। जियाउल रहमान, कलीमुद्दीन, हाफिज, मोजाम्मिन हसन, टीपू सुल्तान, सगीर, हसीन अहमद, वसीम जैसे सैकड़ों कारीगर सरकारी उपेक्षा का शिकार हैं। उनकी शिकायत है कि सरकार उनके जीवन को संवारने के लिए गंभीर नहीं दिखती।
बनारसी साड़ियों के बड़े कारोबारी सूर्यकांत बताते हैं, “ब्रोकेड, जरदोजी, ज़री मेटल, गुलाबी, मीनाकारी, कुंदनकारी, ज्वेलरी और रियल ज़री की साड़ियों की आज भी भारी मांग है। लेकिन प्योर सिल्क को अब चीन की सस्ती साड़ियों से चुनौती मिल रही है। समझ नहीं आता कि हम क्या करें?”
सरैया की तरन्नुम स्कूल नहीं जाती, क्योंकि परिवार के पास उसकी पढ़ाई का खर्च उठाने की ताकत नहीं है। उसकी मां रानी कहती हैं, “हमारे पास रहने के लिए ठीक-ठाक घर नहीं, पीने को शुद्ध पानी नहीं, दाल-सब्जी जुटाना मुश्किल है।
आमतौर पर लल्लापुरा, अलईपुर और बजरडीहा जैसे इलाकों में रोज़ कमाने-खाने वालों की बड़ी आबादी बसती है। लेकिन पिछले डेढ़ साल में इन मेहनतकश लोगों का जीवन तहस-नहस हो गया है। ये वे लोग हैं जो अपनी मेहनत की कमाई पर निर्भर रहते हैं, सरकारी या गैर-सरकारी खैरात की तरफ़ नहीं ताकते। यही वजह है कि वे किसी राजनीतिक दल की जय-जयकार में दिलचस्पी नहीं रखते, बल्कि उन्हें इस सच्चाई का बखूबी एहसास है कि मौजूदा सत्ता ने समाज में ज़हर घोल दिया है और इसकी सबसे भयानक कीमत मेहनतकश लोगों को ही चुकानी पड़ी है।